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खेल से गौरव पाया, गुरबत को हराया

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Team India won Gold medal in the Women’s Hockey, at the 12th South Asian Games-2016, in Guwahati on February 11, 2016.

गांव और सुदूर पिछड़े इलाकों की गरीबी में पलीं लड़कियों ने ओलंपिक में नाम रोशन किया

वे सिर्फ एक खेल नहीं खेलती हैं। न ही वे सिर्फ गले में एक मेडल पहनने के लिए एस्ट्रोटर्फ पर दौड़ती हैं। वे तो उस गुरबत को हराती हैं जिसने ओलंपिक में पहुंचने से पहले हर कदम पर चुनौती दी। इसीलिए बॉक्सिंग, वेटलिफ्टिंग, तीरंदाजी और एथलेटिक्स से लेकर हॉकी की टीम तक में चमक रहीं ये लड़कियां आज सामाजिक बदलाव और गरीबी से बाहर निकलने की चाहत वालों के लिए रोल मॉडल बन गईं। वे साहस, जोश और जज्बे की मिसाल हैं तो उनके संघर्ष की कहानी लाखों ऐसे लड़के-लड़कियों के लिए प्रेरणास्रोत है जो गांव के छप्पर तले रहकर बड़े सपने देखते हैं।  

Team India won Gold medal in the Women’s Hockey, at the 12th South Asian Games-2016, in Guwahati on February 11, 2016.

एमसी मैरीकॉम, मीराबाई चानू, दीपिका कुमारी, लोवलिना और भवानी देवी। ये चंद नाम हैं जिनको आप जानते और पहचानते हैं। लेकिन, भारतीय हॉकी टीम की सदस्यों समेत दर्जनों ऐसी खिलाड़ी हैं जो भारत्तोलन, बाक्सिंग, कुश्ती, बैडमिंटन, टेनिस और तीरंदाजी के साथ ही एथलेटिक्स में जबर्दस्त परफार्मेंस दे रही हैं। कोई विश्व चैंपियन है तो कोई कॉमनवेल्थ की विजेता। कोई एशिया चैंपियन है तो कोई राष्ट्रीय खेलों की विजेता। लेकिन, विश्वकप, एशियाड और ओलंपिक में नाम कमाने वाली इन खिलाड़ियों ने अपने परिवारों की स्थित कैसे बदली और कैसे अपने गरीब परिजनों के आंसू पोंछे, ये कहानी भी कम रोचक नहीं है। इन लड़कियों ने सिर्फ खेल नहीं खेला, परिवार को साधन और सम्मान भी दिलाया। इसीलिए आज की तारीख में खेलों को सामाजिक और आर्थिक उत्थान का सबसे बड़ा साधन माना जाने लगा है।

खेल-खेल में कैसे खिलाड़ी और उनके परिवार का आर्थिक और सामाजिक सम्मान बढ़ता है, इसका सबसे ताजा उदाहरण मीराबाई चानू का है। मणिपुर में म्यांमार से लगती सीमा पर स्थित गांव में चानू समुदाय के लोग रहते हैं। मीराबाई अपने छह भाई-बहनों में सबसे छोटी हैं। घर में सभी बच्चों को भोजन मिल जाए, इससे ज्यादा कुछ नहीं था। लेकिन, आज उनके पास इतना धन आ गया है कि वह पूरे समुदाय की रोल मॉडल बन गई हैं।

भारतीय हॉकी टीम की लड़कियां तो जीना सिखा रहीं

संघर्ष, जज्बा और परिवार को गुरबत से निकालने की जबर्दस्त चाह। ओलंपिक के सेमीफाइनल में पहुंची भारतीय महिला हॉकी टीम की 16 लड़कियों की कहानी तो यही कहती है। किसी ने बांस की स्टिक बनाकर हॉकी खेलना शुरू किया। किसी के पिताजी तांगा चलाते हैं तो किसी मां दूसरे के घरों में काम करके बेटी को हॉकी किट दिलवा पाती थीं। लेकिन, आज जब उनकी मेहनत रंग लाई है तब इन हॉकी खिलाड़ियों के परिवारों को सम्मान और पैसा सब मिल रहा है। मतलब हॉकी की स्टिक का हुनर समाज में बदलाव की राह दिखा रहा है।

मिडफील्डर सलीमा के पिता झारखंड के सिमडेगा में बहुत छोटे किसान हैं। उनके पास बेटी को स्टिक दिलाने के पैसे नहीं थे तो सलीमा ने बांस की स्टिक से अभ्यास शुरू किया। आज जब बेटी ओलंपिक खेल रही है तो जिले के डीएम ने उनके घर टीवी पहुंचा दिया है। राजस्थान के खूंटी जिले की निक्की प्रधान ने पैसे न होने के कारण नंगे पैर हॉकी का अभ्यास शुरू किया था। नेहा गोयल को खुद भी मजदूरी करनी पड़ी। उसको पहली स्टिक उसकी सहेली ने दिलाई थी क्योंकि परिवार पर वह एक खर्चे का बोझ नहीं डालना चाहती थी। हॉकी कोच प्रीतम सिवाच ने दोनों टाइम खाना देने की बात कर मां से उसे अपनी अकादमी में देने को कहा। आज नेहा अपने जैसी लड़कियों की मदद कर रही हैं।   

मिडफील्डर निशा अहमद वारसी के पिता दर्जी का काम करते थे। उनको लकवा मार गया तो माता महरून ने निशा के सपने को पूरा करने के लिए फैक्ट्री में काम किया। उनका पूरा परिवार 25 गज के मकान में रहता है। अब हरियाणा सरकार ने 5 लाख रुपये परिवार को भिजवाए हैं।

गोलकीपर सविता पुनिया के पिता फार्मासिस्ट हैं। उन्होंने बेटी के सपने को पूरा करने के लिए किसानी पर भी ध्यान दिया और आज उनकी बेटी ने भारतीय टीम में दीवार का खिताब हासिल कर रखा है। फारवर्ड खिलाड़ी और भारतीय टीम की कप्तान रानी रामपाल के पिता उन्हें घोड़ा-गाड़ी से मैदान तक छोड़ने जाते थे। लेकिन, आज बेटी की बदौलत उनकी अलग पहचान बन चुकी है। 

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