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मंडी खत्म, मुसीबतें बरकरार

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बिहार के किसानों की मक्के की खेती से आमदनी बढ़ीं, लेकिन कमजोर इंफ्रास्ट्रक्चर के कारण तस्वीर नहीं बदल रही

पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और उत्तर प्रदेश के किसान पिछले करीब सात महीने से आंदोलन कर रहे हैं। उनका मानना है कि केंद्र सरकार जो तीन नए कृषि कानून लाई है, उससे मंडियां खत्म हो जाएंगी और किसानों को उनकी उपज पर न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी भी नहीं मिलेगा। ऐसे में ये जानना जरूरी हो जाता है कि किसानों के लिए मंडियों की जरूरत है अथवा नहीं। मंडियों के रहने या न रहने से किसानों के जीवन पर क्या फर्क पड़ेगा और किसान की जेब में कैश कैसे आए।

हम आपको उस शोध के हवाले से कुछ हकीकतों से रूबरू करा रहे हैं जो मंडी होने और न होने के नफा-नुकसान बताएंगी। ये शोध-अध्ययन 2006 में बिहार में मंडियों को खत्म करने के बाद किया गया। इस अध्ययन के परिणाम आंख खोलने वाले हैं। 

लेकिन, अध्ययन में सिक्के का दूसरा पहलू भी सामने आया। मंडियां खत्म होने से किसानों को कैश क्रॉप का अच्छा दाम पाने के लिए दूसरे प्रदेशों और देश से बाहर की मार्केट देखनी हैं। यहां इंफ्रास्ट्रक्चर की कमी आड़े आती है। इंटरनेशल खरीदार किसान की उपज तक तभी पहुंचेगा जब आवागमन के साधन, सुरक्षा और हॉस्पिटेलिटी मिले। इसी तरह किसान बड़ी मार्केट तक तभी पहुंचेगा जब गांव तक अच्छी सड़के, सही गाइडेंस और सरकारी प्रोत्साहन मिले। यही कारण है मंडी खत्म होने के बावजूद किसानों की समस्याएं बरकरार हैं। किसान की जेब में कैश तो आया है, लेकिन दूसरे देशों (और कुछ हद तक दूसरे प्रदेशों) के किसानों की तुलना में कम। ऐसे में सवाल उठता है कि मंडिया खत्म करने से किसानों की हालत सुधरेगी या मंडियों को उन्नत और हाईटेक बनाकर तस्वीर बदलेगी।     

दलहन-तिलहन से आमदनी बढ़ा रहे वेस्ट यूपी के किसान

किसानों के जीवन में बदलाव और आमदनी में बढ़ोतरी तभी हो सकती है, जब वे पारंपरिक खेती का मोह त्याग दें। इसका बहुत बड़ा और जीवंत उदाहरण हैं एटा, कासगंज, मथुरा समेत पूरे वेस्ट यूपी के वे किसान जिन्होंने तंबाकू और धान की खेती को बॉय बॉय कहकर दलहन और तिलहन को अपना लिया। नतीजा है उनके खेतों में उड़द, मूंग, अरहर, मक्का, मूंगफली और सोयाबीन की फसलें लहाती हैं। यूपी सरकार ने फसल विविधीकरण योजना पर गंभीरता से काम किया तो किसानों ने भी इस प्रयोग को सर-आंखों पर लिया। नजीता चार साल में ही करीब 75-76 हजार हेक्टेयर रकबे में धान की जगह दलहन और तिलहन की खेती होने लगी। नतीजा है कि किसानों को सीधे बाजार में उपज बेचकर नकदी मिल रही है। खास बात ये भी है कि इन फसलों को बेचने के लिए किसानों को मंडियों का चक्कर नहीं लगाना पड़ता।

केस स्टडी: बिहार के किसान, मक्के की खेती से आमदनी बढ़ीं, कमजोर इंफ्रास्ट्रक्चर के कारण तस्वीर नहीं बदल रही

नार्थ इंडिया के किसान आंदोलन कर रहे हैं। उनकी मांग है कि वर्तमान केंद्र सरकार जो तीन नए कृषि कानून लाई है उनको वापस ले। देश के कृषि मंत्री कह रहे हैं कि तीनों कानूनों पर किसान बात करें। जो शंका होगी उसे सरकार दूर करेगी और कानूनों में संशोधन भी करेगी। ऐसे में जानना जरूरी है कि किसानों की शंका है क्या। किसान नेता कहते हैं कि नए कानून से मंडियां खत्म हो जाएंगी किसानों को उनकी उपज पर न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी भी नहीं मिलेगा। 

बिहार में जब नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने प्रदेश के किसानों की दुर्दशा दूर करने का प्रयास किया। उन्होंने पाया कि पंजाब-हरियाणा के उलट बिहार की मंडियों में किसानों का जमकर शोषण हो रहा है। किसान मंडियों तक पहुंच ही नहीं पाता है। मंडी के गेट पर किसानों से औने-पौने दामों में गेहूं और धान खरीद लिया जाता है। इससे किसानों को पारंपरिक खेती से जीवनयापन भर की कमाई नहीं हो पा रही है। आखिरकार बिहार सरकार ने राज्य में मंडियां खत्म कर दीं। किसानों को सीधे फसल बाजार में बेचने का मौका मिल गया। लेकिन, इससे किसानों की सूरत नहीं बदली। इसके बाद बिहार सरकार और कृषि विभाग किसानों को ये समझाने में लग गया कि उस फसल को उगाओ जिसकी उपज की देश-दुनिया में मांग है। जितनी ज्यादा मांग बढ़ेगी, उतनी ज्यादा कीमत भी मिलेगी। बिहार के बड़े हिस्से में किसानों ने मक्का उगाना शुरू कर दिया। नतीजा हुआ कि बाहर के राज्यों से खरीदार आने लगे और किसानों को नगद पैसा मिलना शुरू हो गया। आज 15 साल बाद स्थिति ये है कि ट्रेन से जब बिहार के किसी हिस्से से गुजरेंगे तो मक्के खेत ही लहलहाते नजर आएंगे। भुट्टा ठेले पर भी दिखेगा और ट्रकों में भी।

समझ लीजिए बिहार में कृषि सुधारों से क्या बदलाव आया

जिस अध्ययन को आपके सामने हम रख रहे हैं वह 2006 में बिहार में कृषि उत्पाद विपणन समिति अधिनियम के तहत मंडियों को ख़त्म किये जाने की दशा में किसान की उपज व्यापार और वाणिज्य पर होने वाले सांकेतिक प्रभावों की पड़ताल करता है। मतलब मंडियां हटी, फसलों में विविधता आई तो किसान के जीवन पर क्या फर्क पड़ा।

फारमर्स प्रोड्यूस ट्रेड एंड कॉमर्स (एफपीटीसी) एक्ट को लेकर 2020 के कृषि कानूनों  के खिलाफ आंदोलन उन हालात में भी जारी नज़र आया जब देश कोरोना की दूसरी प्रचंड लहर से जूझ रहा था। यह एक्ट के ज़रिए कृषि उपज को एपीएमसी (एग्रीकल्चर प्रोड्यूस मार्केटिंग कमेटी) के अंतर्गत मंडी या बाहर कहीं भी बेचने और ख़रीदने की अनुमति देता है। हालांकि विभिन्न पहलुओं से एफपीटीसी के पक्ष और विपक्ष में दिए जाने वाले तर्क का मुआयना करने पर ये बात सामने आती है कि इस मामले में एक मजबूत तजुर्बे वाले विश्लेषण का अभाव है।

कई राज्यों ने एफपीटीसी अधिनियम से पहले खासकर एपीएमसी मंडियों के बाहर लेनदेन को लेकर इस तरह के कानूनों बनाये हैं। (तालिका-1) इस तजुर्बे से  एक महत्वपूर्ण सीख मिलती है, 2005 में बिहार में सत्ता संभालने के बाद नीतीश कुमार सरकार अपनी सबसे पहली कार्रवाई के तहत एपीएमसी को निरस्त करती है। इसके साथ ही बिहार इस बिल को निरस्त करने वाली पहली रियासत बन जाता है।

इस बुनियादी पॉलिसी सुधार का किसान और उसकी उपज की कीमत पर किस तरह का असर पड़ा? इससे किन समूहों को फायदा या नुकसान हुआ? इस शोध (सरोज एट ऑल 2021) के माध्यम ऐसे ही सवालों के जवाब की तलाश की गई है। 

एपीएमसी एक्ट को निरस्त करने के प्रभाव को मापना

हम कृषि बाजार पर एपीएमसी अधिनियम को निरस्त करने और इसके नतीजे में बिहार के किसान के स्तर पर पड़ने वाले प्रभाव का आकलन करना चाहते हैं। एपीएमसी एक्ट को रद्द करना एक पॉलिसी में बदलाव है, जो बिहार के लिए महत्वपूर्ण है। केवल एक रियासत में इस योजना को लागू करने के मामले में सांख्यिकीय विश्लेषण के तहत एक सटीक अनुमान लगाना मुश्किल ही नहीं शायद नामुमकिन है। (एबडी एट ऑल. 2010, ऑटोर एट ऑल. 2008, बुकमुएलर एट ऑल. 2011) {Abadie et al. 2010, Autor et al. 2008, Buchmueller et al. 2011)} इस केस-स्टडी के लिए हम एक मात्रात्मक दृष्टिकोण अपनाते हैं और सिंथेटिक कंट्रोल मेथड (SCM)3 का उपयोग करते हैं, जो इन हालात से निपटने के लिए खास तौर से तैयार किया गया है (एबडी एट ऑल. 2010)।

फोटो (1) से बिहार और ‘सिंथेटिक’ बिहार के वास्तविक मामले की तुलना करके चुनिंदा वस्तुओं के लिए कृषि फसल की कीमतों (FHP)4 के असर को समझा जा सकता है। हम पाते हैं कि इस कानून को निरस्त किये जाने से धान, गेहूं और मक्का के बाजार स्तर के परिणामों में कोई मापनीय बदलाव नहीं हुआ। दालों या जल्दी खराब होने वाली वस्तुओं पर भी बाजार का कोई असर देखने में नहीं आया। हम बाजार के  सामर्थ्य (अनाज, मक्का, दालों और सब्जियों में) का आकलन करने के लिए खुदरा-थोक, खुदरा-खेत की फसल, थोक-खेत की फसल और एमएसपी-खेत की फसल की कीमतों के बीच भी विश्लेषण भी करते हैं। परिणाम बताते हैं कि इनमें से कोई भी एपीएमसी के रद्द किये जाने से महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित नहीं हुआ है।

फोटो (1) धान, गेहूं और मक्का पर एपीएमसी अधिनियम को निरस्त करने के मूल्य प्रभाव

https://www.ideasforindia.in/images/080621-figure-1-Price-impacts.jpg

(नोट: दाहिना पैनल ‘प्लेसबो टेस्ट’ प्रस्तुत करता है जहां राज्यों को नियंत्रित करने के लिए कृत्रिम हस्तक्षेप किया गया है (जो वास्तविकता में हस्तक्षेप के अधीन नहीं होते हैं), और बिहार के परिणामों की तुलना प्लेसीबो रन से की जाती है। बिहार महत्वहीन प्रभाव के कारण अन्य राज्यों से अलग नहीं है।)

बिहार में एपीएमसी के निरस्त करने के बाद की अवधि में कई बदलाव देखने को मिले। सबसे पहला बदलाव अनाज खासकर से धान की विकेंद्रीकृत आंशिक खरीद की व्यवस्था में आया। भले ही बिहार में  खरीद हुई लेकिन यह ज्यादातर एमएसपी से नीचे थी। इसलिए उन राज्यों की तुलना में जहां कीमत एमएसपी के करीब थी, सापेक्ष रूप से बिहार के किसानों को मिलने वाला मूल्य रुझान के आधार पर कम था। दूसरा बदलाव राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (एनएफएसए), 2013 के बाद चावल की ‘डंपिंग’ (बाजार मूल्य का कम होना) रहा, जहां चावल की एक महत्वपूर्ण मात्रा को केंद्रीय पूल से सीमांत लागत से काफी कम कीमत पर लाया गया था।

तीसरा बदलाव इस अवधि में मक्का में मजबूत तकनीकी सुधार के रूप में दिखा। बिहार ने अन्य राज्यों को मक्का का तेजी से निर्यात किया और ऐसे में आयात समानता को बनाए रखा। इस निर्यात के लिए बिहार में मक्का की कीमतों को तुलनात्मक रूप से कम करने की ज़रूरत थी। मक्का विशेष रूप से एकमात्र ऐसी फसल है जहां बिहार की उत्पादकता इस अवधि में राष्ट्रीय औसत से अधिक थी।

किसानों के स्तर पर मिलने वाले परिणाम

हम खेत की फसल की क़ीमत (एफएचपी ) के मामले में कृषि लागत और मूल्य आयोग (सीएसीपी) से पैनल डेटा को नियोजित करके और अलग अलग विधियों का उपयोग करके किसान के स्तर को लेकर जो प्रभाव पाते हैं वह फसल के अनुसार भिन्न होता है।

फोटो (2) से पता चलता है कि  बिहार में गेहूं को छोड़कर धान और मक्का की कीमतों में अन्य राज्यों के जैसे ही हालात दिखाई देते हैं। 2006 के बाद इस तरह के समानांतर रुझानों के साथ इकाई मूल्यों में अंतर को सुधार के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है, जो समय के अलावा भिन्न कारकों जैसे कि प्रौद्योगिकी, नीति या बाजारों की सीमा स्थिर रहने पर निर्भर करता है।

https://www.ideasforindia.in/images/080621-Figure-2-behaviour.jpg

(फोटो 2. धान, गेहूं और मक्का में इकाई मूल्यों का व्यवहार)

बिहार के नतीजों से मिला सबक़ 

 बिहार में कृषि बाजारों में बुनियादी सुधार के बावजूद मुनासिब मार्केटिंग के बुनियादी ढांचे की कमी देखने को मिली है। वर्ल्ड बैंक (2005) की रेटिंग में बिहार मार्केट के बुनियादी ढांचे में कमी के साथ राज्यों में तीसरे स्थान पर और मौजूदा बाजार स्थितियों के साथ किसानों की संतुष्टि में चौथा स्थान पर रहा।

सभी वस्तुओं के परिणामों में अंतर से सबक़ मिलता है कि सार्वजनिक एजेंसियों द्वारा सीमित खरीद के साथ बिहार में धान की खेती ज्यादातर स्व-उपभोग के लिए की जाती है। 2006 से पहले भी बिहार मक्का हब के रूप में उभरा था। 2012-13 में बिहार का मक्का निर्यात 10 लाख टन को पार कर गया। 2012 में जब विश्व में मकई की कीमतें चरम पर थीं तब बिहार का मक्का दक्षिण पूर्व एशिया के मूल्य से 10-15 अमेरिकी डॉलर सस्ता था, एक स्थानीय मुनाफे (दक्षिण अमेरिकी शिपमेंट के लिए दो महीने का समय) के कारण निर्यात में उछाल से बिहार के किसानों को फायदा हुआ और इसने बाज़ार के सुधार में एक ख़ास रोल निभाया।

धान के मामले में भी काफी सूक्ष्म नतीजे सामने आते हैं। 2006 में निरस्त के बाद धान का एफएचपी केवल बिहार में वास्तविक रूप से बढ़ रहा है बल्कि अन्य राज्यों में भी (चित्र 3) इसके बढ़ने के परिणाम सामने आये हैं। हालांकि अपेक्षाकृत बिहार का धान एफएचपी कम निकला है। नियंत्रण किये जाने वाले राज्यों की अपेक्षा  बिहार से मिलने वाले परिणाम परिवर्तनों के आधार पर नकारात्मक प्रभाव दिखाते हैं। यह अंतर बेहतर खरीद प्रणाली और बिहार की तुलना में नियंत्रण वाले राज्यों में एमएसपी के लिए एफएचपी की सख्त एंकरिंग के कारण है (विश्लेषण के दौरान समय का बदलाव जैसे अनेक अनदेखे कारक हैं)। बिहार में एपीएमसी मंडियों के बाहर फार्म गेट पर किसानों और व्यापारियों के बीच बिक्री बहुत अधिक है जबकि वसूली से सम्बंधित एक छोटा तबका है । बिहार के केवल 5.5% किसानों ने 2019 में सरकारी एजेंसियों को सामान बेचा, ये एक ऐसी विशेषता है जो सुधारों के साथ अपरिवर्तित बनी हुई है (चटर्जी एट अल. 2020)10।

आपूर्ति बढ़ने से कृषि मूल्य में कमी

एफएचपी पर प्रभाव के लिए एक अन्य मार्ग को एनएफएसए के सामान्य संतुलन प्रभाव के रूप में माना जा सकता है। बिहार धान की खेती में आत्मनिर्भर है और यहां केवल दस लाख टन की खरीद की जाती है। केंद्रीय पूल से 30 लाख टन से अधिक चावल बिहार में आता है। आपूर्ति में इस बड़ी वृद्धि से कीमतों में कमी के आसार बनते हैं।

निष्कर्ष

बिहार में APMC अधिनियम को निरस्त करने का उद्देश्य नए बाजार बनाना और कृषि बाजारों में निजी निवेश को आकर्षित करना और बुनियादी ढांचे में सुधार करना था। शोध में पता चला कि निजी बाजार में खास बढ़ोत्तरी नहीं हुई। रुझान  बताते हैं कि बाजार के सामर्थ्य पर बाजार के स्तर के परिणामों पर कोई असर नहीं पड़ा। किसान के स्तर के नतीजे में हम मक्का और अनाज के विपरीत प्रभाव देखते हैं। मक्का के मामले में जहां निजी क्षेत्र का प्रवेश महत्वपूर्ण रहा है और अन्य राज्यों में पशुधन क्षेत्र से बाजार में खींचतान है, वहां इसको निरस्त करने के कारण क़ीमत गिरी।

पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों में जहां एमएसपी आधारित खरीद होती है, वहां अधिकांश लेनदेन एपीएमसी मंडी के अंदर होते हैं। जबकि बिहार में होने वाले अधिकांश लेनदेन या तो फार्म गेट पर या अनौपचारिक स्थानीय बाजारों में किए जाते हैं। बाज़ार के बुनियादी ढांचे की निम्न गुणवत्ता से दूसरे प्रभावों का पड़ना मुमकिन है क्योंकि बिहार में मंडी कर और शुल्क जैसे वित्त तंत्र मौजूद नहीं हैं।

यह बताना बहुत कठिन है कि बिहार में एपीएमसी अधिनियम को निरस्त करना किसान के लिए अनुकूल है या नहीं। दूसरी ओर अन्य राज्यों की बात करें तो पाते हैं कि कई राज्यों का वातावरण, फसलें और औसत भूमि का आकार बिहार जैसा है । इसके बावजूद किसान, बाजार और स्थान विशेषताओं के संदर्भ में महत्वपूर्ण अंतर हैं। बिहार में धान के लिए अपेक्षाकृत कम पैदावार है और स्थानीय बाजार संकुचित है। दूर के बाजारों में कम सामान लेकर जाना कठिन है। मक्का की खेती के नतीजे सुधारों के महत्व और अन्य राज्यों में वाणिज्यिक उत्पादन से मांग की भूमिका को दर्शाते हैं। जैसा कि हाल के व्यापार सम्बन्धी लेखों से मिली जानकारी  से पता चलता है कि व्यापारिक लागतों को देखते हुए उच्च उत्पादकता होने पर ही दूर के बाजार तक पहुंच संभव है।

(सोर्स : https://www.ideasforindia.in/topics/agriculture/impact-of-agricultural-reforms-in-bihar-test-case-for-new-farm-laws.html

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Avinash Kishore

International Food Policy Research Institute

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Prabhat Kishore

ICAR-National Institute of Agricultural Economics

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Devesh Roy

International Food Policy Research Institute

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Sunil Saroj

International Food Policy Research Institute

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