(कोरोना महामारी से पहले ही भारत में हेल्थ सेक्टर अव्यवस्थाओं और अनदेखी के रोग में जकड़ा था। कोरोना की पहली लहर को बेअसर जान इसे इग्नोर किया गया जिसका नतीजा दूसरी लहर को प्रलय बना गया। कोरोना की वैक्सीन तो आ चुकी हैं और फिर भी बहुत काम बाकी हैं। वर्ल्ड बैंक में सीनियर इकानामिस्ट स्तुति खेमानी की एक रिसर्च इसके पीछे का न केवल कारण बताती है बल्कि उसका इलाज भी सुझा रही है। खेमानी का मानना है कि कुछ तरीक़ों से हेल्थ सेक्टर को इतना स्ट्रांग किया जा सकता है कि भारत इस मोर्चे पर दुनिया का नेतृत्व करने का दम दिखा सकेगा।)
जून के पहले सप्ताह में मध्य प्रदेश से एक खबर आती है कि 3500 जूनियर डाक्टरों ने इस्तीफा दे दिया। सरकार से अपनी जायज़ मांगे पूरी न होने पर जब ये डॉक्टर हाईकोर्ट का रुख करते हैं तो कोर्ट इनकी मांगों को अवैधानिक करार देता है। नाराज़ डाक्टरों के पास एक मात्र हल बचता है इस्तीफा। जिस समय विश्व सदी की सबसे बड़ी महामारी का सामना कर रहा है और भारत में कोरोना की दूसरी ने लहर यहाँ के हेल्थ सेक्टर की बदहाली को सारी दुनिया के सामने उजागर कर दिया है, ऐसे में फ्रंट लाइन पर मौजूद डॉक्टर खुद को मार्जिन पर पाते हैं तो इनके अंडर में काम करने वाले स्टाफ की बदतर हालत का अंदाज़ा लगाया जा सकता है।
तो आख़िर समस्या क्या है, हर राज्य में कोई न कोई ऐसी दिक्कत आ रही है। इसी मामले में वर्ल्ड बैंक के एक रिसर्च पेपर ने सबका ध्यान खींचा है। इस रिसर्च पेपर की मानें तो ज़्यादातर हेल्थ वर्कर्स को संदेह और अविश्वास की नज़र से देखा जाता है। ज़्यादातर हेल्थ वर्कर्स का कहना है कि मैनजमेंट मीटिंग में उन्हें फटकार पड़ती है और उनके किसी भी काम पर प्रोत्साहित नहीं किया जाता है। बेहद छोटी चीज़ों के लिए परमिशन लेनी पड़ती है। हर मीटिंग में सिर्फ़ इस बात पर फ़ोकस किया जाता है कि किसने कौन सा काम ख़राब किया है।
आइडियाज़ फ़ॉर इंडिया में छपी है ये रिपोर्ट। वर्ल्ड बैंक की सीनियर इकानमिस्ट स्तुति खेमानी ने वैसे तो यह रिसर्च बिहार में की थी लेकिन यह हाल सभी राज्यों का है, वह चाहे यूपी हो या एमपी। बिहार में नवंबर 2018 और मार्च 2019 के बीच किये गए एक शोध में “खेमानी और उनकी टीम” का कहना है कि जिन हेल्थ वर्कर को शक की नज़र से देखा गया और मजदूरी भी नहीं दी गई थी, हाल में वही वर्कर कोविड -19 के खिलाफ लड़ी जाने वाली लड़ाई फ्रंट पर मौजूद रहे। यहां तक कि खेमानी का रिसर्च यह भी बताता है कि पब्लिक हेल्थ वर्कर के लिए आज तक किसी भी राजनीतिक पार्टी द्वारा नियमित वेतन और इनके कैडर से जुड़ी किसी भी पालिसी पर आज तक काम ही नहीं किया गया है।
शोध में ये बात भी सामने आई कि मुखिया या ग्राम प्रधान का ध्यान कभी इन समस्याओं पर गया ही नहीं, जिन पर काम करके वह इन हेल्थ वर्कर्स की ड्यूटी को आसान बना सकता था। बिहार में 254 ग्राम पंचायतों में किये गए सर्वेक्षण के रिजल्ट में डॉक्टर्स से लेकर बॉटम लाइन के वर्कर का कहना है -” हम कितने भी प्रयास कर लें, सिस्टम स्वास्थ्य परिणामों में सुधार नहीं होने देगा। 254 ग्राम पंचायतों पर आधारित सर्वे को जब एक ग्राफ का रूप दिया गया तो आने वाले रिजल्ट को टेबल (1) से समझा जा सकता है। ये शोध बिहार में किया गया था मगर सभी राज्य ऐसी ही परशानियों का सामना कर रहे हैं।
टेबल: यहां ऐसे हेल्थ वर्कर्स को परसेंट में दिखाया गया है, जिनका कहना है कि “हम कितने भी प्रयास कर लें, सिस्टम स्वास्थ्य परिणामों में सुधार नहीं होने देगा।“
यहाँ CHW का मतलब कम्यूनिटी हेल्थ वर्कर से है और PHC का मतलब प्राइमरी हेल्थ सेंटर है।
खेमानी के सर्वे से जो एक ख़ास बात सामने निकल कर आई कि मैनेजमेंट अपने अंडर काम करने वाले स्टाफ को शक के घेरे में रखता है। काम से सम्बंधित होने वाली मीटिंग्स का मक़सद डिसिप्लिन की सख्ती और कर्मचारियों की कमियों को साबित करना होता है। डॉक्टर और उनके सामान ओहदेदारों को भी शिकायत है कि ड्यूटी के दौरान उन्हें हर छोटे से छोटे काम के लिए परमिशन की ज़रूरत होती है। लगभग 80 परसेंट कम्युनिटी हेल्थ वर्कर और 86 प्रतिशत एएनएम का कहना है कि उनके प्रबंधक बैठकों में डांटने वाला रवैया रखते हैं। इस सर्वे को टेबल (2) के ग्राफ से समझा जा सकता है।
टेबल: यहाँ ऐसे हेल्थ वर्कर्स को परसेंट में दिखाया गया है, जिनका कहना है कि मैनज्मेंट की मीटिंग का मक़सद सिर्फ़ डाँटना और कमियों को बताना है।
इस सन्दर्भ में खेमानी की रिसर्च साबित करती है कि एक बदला हुआ दृष्टिकोण हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर को इस हद तक बदल सकता है कि महामारी के समय भारत एक शानदार नेतृत्व का रोल निभा सकता है। इसके लिए ज़रूरत हेल्थ सेक्टर में राजनीतिक भूमिका में बदलाव के अलावा विश्वास के साथ मनोबल को बढ़ाये जाने की है।