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Auron Mein Kahan Dum Tha: कलात्मक निर्देशन में उलझी सीधी सरल प्रेम कहानी, सई मांजरेकर ने दिलाई नूतन की याद

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‘वेडनेसडे’, ‘स्पेशल 26’ और ‘बेबी’ हिंदी सिनेमा की तीन कालजयी फिल्में हैं। बतौर निर्दशक नीरज पांडे ने इसके बाद फिल्म ‘एम एस धोनी द अनटोल्ड स्टोरी’ बनाई और फिल्म का कारोबारी गणित इसमें धन निवेश करने वाली कंपनी फॉक्स स्टार स्टूडियोज के मुताबिक ठीक नहीं रहा। और, फिर ‘अय्यारी’। नीरज पांडे ने इसके बाद अपना खोया रुआब फिर से पाया ओटीटी पर दमदार जासूसी सीरीज ‘स्पेशल ऑप्स’ बनाकर। इसका दूसरा सीजन जल्द आने वाला है लेकिन, इस बीच नीरज ये भी बताते चलते हैं कि उनकी राह बतौर फिल्ममेकर कितनी उलझ चुकी है। उनकी कंपनी फ्राइडे फिल्मवर्क्स अब रिलायंस एंटरटेनमेंट की साझीदार नहीं है। नरेंद्र हीरावत जैसा बड़ा कारोबारी समूह उनका नया जोड़ीदार है। हीरो अजय देवगन हैं, जिनके साथ वह ‘चाणक्य’ बनाने वाले थे, लेकिन जो फिल्म बनी वह बताती है कि जीवन में हमारे साथ जो कुछ होता है, वह हम खुद ही तय करते हैं, ‘औरों में कहां दम था’।

वनराज को छूकर लौटा कृष्णा
फिल्म ‘औरों में कहां दम था’ एक ऐसी कहानी है जो संजय लीला भंसाली की फिल्म ‘हम दिल दे चुके सनम’ को छूकर लौट आती है। एक पति है, उसकी कारोबारी पत्नी है। दोनों मुंबई के सबसे महंगे इलाके की जिस इमारत में रहते हैं। यहां तक पहुंचने का, गरीबों की बस्ती जिसे मुंबई में चॉल कहते हैं, में रहने वाला शायद सपना भी न देख पाए। लेकिन, वसुधा वहां पहुंचती है। मांग में सिंदूर लगाए, सीने में राज दबाए उसकी जिंदगी बीस साल से यूं ही चल रही है। उसे जो प्रेम करता था, वह कृष्णा जेल से रिहा हो रहा है। उसे 25 साल की सजा हुई। लेकिन, अच्छे चाल चलन ने उसकी सजा कोई ढाई साल कम करा दी है। दोस्त जिग्ना उसे लेने आता है। पासपोर्ट तैयार है। दुबई जाने की तैयारी है और उसके पहले की रात कयामत की है क्योंकि वसुधा अपने प्रेमी कृष्णा को अपने पति अभिजीत से मिलाना चाहती है। दो पूर्व प्रेमियों की साथ बिताई रात की कहानी फिल्म ‘96’ में विजय सेतुपति और तृषा ने खूब प्यारी गढ़ी। लगता यहां भी कि वसुधा और कृष्णा शायद मुंबई की लोकल ट्रेन में घूमे लेकिन नीरज पांडे ने खुद फिल्म लिखी है तो ‘विक्रम वेधा’ की हिंदी रीमेक के सबक कम से कम उन्हें याद रहते हैं।

प्रेम कहानी का गुणा-भाग करके बना संगीत
फिल्म ‘औरों में कहां दम था’ की सबसे बड़ी कमजोरी है, इसका संगीत। एम एम कीरावणी और मनोज मुंतशिर ने मिलकर इसके लिए मेहनत बेशक काफी की है, लेकिन मनोज मुंतशिर की लिखाई का दर्द उनके बदले हालात के चलते शायद गुणा भाग में ज्यादा बदल गया है। वह अब लिखते हैं तो समझ आता है कि ये उनका स्वाभाविक प्रवाह नहीं है। अब वह दर्द लिखते नहीं बल्कि उसे लिखने के लिए शब्द तलाशते नजर आते हैं। एम एम कीरावणी की अपनी सीमाएं हैं। हिंदी की फिल्म वह उतनी ही समझ पाए होंगे जितनी उन्हें अंग्रेजी में समझाई गई होगी और भाषा बदलते ही प्रेम के भाव को प्रकट करने के जो भाव बदलते हैं, उसी की उलझ का शिकार हो गई है फिल्म ‘औरों में कहां दम था’। आखिर के आधे घंटे में नीरज पांडे ने एक ठीक ठाक प्रेम कहानी को एक थ्रिलर फिल्म बनाने के लिए जो तथाकथित ‘ट्विस्ट’ डालने की कोशिश की, उसने फिल्म को और उलझाया है।

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